उत्तर प्रदेश के हाथरस में सामूहिक बलात्कार की जघन्य वारदात पर व्यापक आक्रोश के बीच इन घटनाओं के वर्णन का उद्देश्य सिनेमा रूपी माध्यम को या समाज के किसी खास वर्ग को कोसना या उसका नकारात्मक चित्रण करना नहीं है. क्योंकि आज हम उस दौर से बहुत आगे बढ़ चुके हैं. इंटरनेट क्रांति और स्मार्टफोन की सर्वसुलभता ने पोर्न या वीभत्स यौन-चित्रण को सबके पास आसानी से पहुंचा दिया है. कल तक इसका उपभोक्ता केवल समाज का उच्च मध्य-वर्ग या मध्य-वर्ग ही हो सकता था, लेकिन आज यह समाज के हर वर्ग के लिए सुलभ हो चुका है. सबके हाथ में है और लगभग फ्री है. कीवर्ड लिखने तक की जरूरत नहीं, आप मुंह से बोलकर गूगल को आदेश दे सकते हैं. इसलिए इस परिघटना पर विचार करना किसी खास वर्ग या क्षेत्र के लोगों के बजाय हम सबकी आदिम प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास है. तकनीकें और माध्यम बदलते रहते हैं, लेकिन हमारी प्रवृत्तियां कायम रहती हैं या स्वयं को नए माध्यमों के अनुरूप ढाल लेती हैं.
साल 1989-90 की बात होगी. उत्तर भारत के किसी कस्बाई सिनेमाघर में कोई फिल्म दिखाई जा रही थी. पर्दे पर जैसे ही शक्ति कपूर रूपी खलनायक चरित्र ने अनीता राज रूपी चरित्र का बलात्कार करना शुरू किया, तो हॉल में सीटियां बजनी शुरू हो गईं. तभी अचानक बिजली चली गई. अब जब तक जेनरेटर चलाया जाता और पर्दे पर फिर से रोशनी आती तब तक दर्शकों ने हंगामा मचाना शुरू कर दिया. और जब बिजली आई तो कहा गया कि उस सीन को दोबारा चलाया जाए.
बड़ी संख्या में उस दौर के पुरुष दर्शक बलात्कार के दृश्य बहुत पसंद करते थे. हाट-बाज़ार में यहां-वहां लगे पोस्टरों के कोनों में जान-बूझकर ऐसे दृश्य अवश्य लगाए जाते थे, जिससे लोगों को यह पता चल सके कि इस फिल्म में बलात्कार का दृश्य भी है. सिनेमाघर के ठीक बाहर के पान की दुकानों पर ये शिकायत आम रहती थी कि बलात्कार का सीन तो दिखाया गया, लेकिन कपड़े ठीक से नहीं फाड़े, कुछ ठीक से नहीं दिखाया, उतना ‘मज़ा’ नहीं आया. हालांकि सिनेमाघर में मौजूद कुछ ऐसे दर्शक भी अवश्य होते थे, जिनकी सहानुभूति पीड़िता के चरित्र से रहती थी. यह कहना मुश्किल है कि उस दौर के फिल्मकारों ने लोगों की मानसिकता को अच्छी तरह समझकर इस ट्रेंड को भुनाना शुरू किया था, या कि फिल्मकारों द्वारा इस रूप में परोसे गए दृश्यों की वजह से लोगों की रुचि और मानसिकता इस प्रकार की बन गई थी.
इससे मिलती-जुलती एक घटना कुछ समय पहले देखने में आई. बिहार में एक रात्रिकालीन बस (जिन्हें आमतौर पर ‘वीडियो कोच’ कहा जाता है) में सफर करते हुए कंडक्टर ने एक ऐसी फिल्म चलाई जिसमें फिल्म का प्रौढ़ खलनायक बार-बार अलग-अलग तरीकों से अलग-अलग स्कूली बच्चियों का अपहरण और बलात्कार करता था. स्कूल यूनिफॉर्म में ही बलात्कार के दृश्यों को लंबा और वीभत्स रूप में दिखाया जा रहा था. इन पंक्तियों के लेखक ने कंडक्टर को बुलाकर कहा कि भाई, ये सब क्या चला रहे हो. इस बस में महिलाएं और बच्चे भी सफर कर रहे हैं, कम से कम उनका तो लिहाज करो. कंडक्टर अनसुना करते हुए आगे बढ़ गया. दोबारा ऊंची आवाज में कहा गया तो कंडक्टर भी भड़क गया. दाढ़ी और वेश-भूषा देखकर कहने लगा, बाबाजी ये आपके काम की चीज नहीं है, आप तो आंख बंद करके सो जाइये. लंबी बस में सबसे पिछली सीट पर बैठे लोग उस फिल्म का भरपूर आनंद लेना चाहते थे और बार-बार कंडक्टर से कह रहे थे कि वॉल्यूम बढ़ाओ. लेकिन इसके बाद चार-पांच अन्य मुसाफिरों ने भी जब उस फिल्म के दिखाने पर आपत्ति जताई और बात ड्राइवर तक जा पहुंची, तो आखिरकार फिल्म को बदल दिया गया और थोड़ी देर बाद उस वीडियो को ही पूरी तरह बंद कर दिया गया.
नब्बे के दशक के आखिर तक मध्य प्रदेश के एक छोटे जिले में इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि एक-दो ऐसे विशेष सिनेमाघर होते थे, जिनकी ख्याति ही ऐसी फिल्मों की होती थी जिनमें बलात्कार इत्यादि के कई दृश्य फिल्माए गए होते थे. प्रचलित शब्दावली में जिन्हें ‘बी ग्रेड’ या ‘सी ग्रेड’ कहा जाता था, ऐसी फिल्में ही उनमें दिखाई जाती थीं. नेपाल सीमा से सटे उत्तर प्रदेश के एक जिले के किसी ब्लॉक में हाल तक ऐसा एक विशेष सिनेमाघर देखने को मिला. यह बात वहां शो के इंतजार में खड़े दर्शकों से पूछने पर पता चली. ज्यादातर दर्शक नवयुवक और यहां तक कि किशोर उम्र के ही थे. घोषित रूप से मॉर्निंग शो में चलने वाली एडल्ट फिल्मों के अशोभनीय और वीभत्स पोस्टर दिल्ली के कनॉट प्लेस से लेकर पटना जैसी राजधानियों के लगभग हर सार्वजनिक स्थल परसटे हुए हम सबने देखे ही होंगे।
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